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Tuesday, 12 June 2018

Misuse Of Public Interest Litigation


             

             
   सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 व हाई कोर्ट में अनुच्छेद 226 के तहत जनहित याचिकाओं की व्यवस्था इसलिए की गई थी ताकि सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े कमजोर तबके के लोगों तक न्याय की पहुंच को सरलतम तरीके से सुनिश्चित किया जा सके । लेकिन हाल ही में जिस तरीके से जज लोया के मामले संबंधी जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी अवमानना करार दिया है , वह चिंताजनक है । 

                   ‎ न्यायालय की उस टिप्पणी को भी चिंताजनक कहा जा सकता है जिसमें कहा गया कि   ' न्यायालयों का राजनीतिक उपयोग न हो ' । कोर्ट की यह टिप्पणी न सिर्फ राजनीति के मूल उद्देश्य से भटकाव को दर्शाती है बल्कि यह  सोचने पर  भी मजबूर करती है कि जनहित याचिकाएं कहीं जनहित की बजाए व्यक्तिगत हित का  तो शिकार नहीं हो रही ?
                  इसमें कोई संशय नहीं की पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स जैसी संस्था ( 1981) और बंधवा मुक्ति मोर्चे द्वारा  दायर जनहित याचिकाओं ने सुप्रीम कोर्ट को मजदूरों के अधिकारों के उल्लंघन का मामला सूचित कर , मौलिक अधिकारों और मानव अधिकारों की जनता तक पहुंच को  सुनिश्चित करने के साथ  न्यायपालिका के प्रति जनता के ' विश्वास वृद्धि ' करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । लेकिन दुख की बात है कि वर्तमान में अनेक  अतार्किकता व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की शिकार जनहित याचिकाएं लोकतंत्र के तीसरे मुख्य स्तंभ का समय के साथ सीमित संसाधनों को बर्बाद करने पर तुली हैं ।

                ऐसे में आवश्यक है कि निष्पक्षता , पारदर्शिता और प्रशासन में भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने वाली जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग न हो इसके लिए कुछ शर्तों की अनिवार्यता पर विचार किया जाए। उसी याचिका की सुनवाई हो जिसमें पीड़ित द्वारा संबोधित किया गया हो , सार्वजनिक भावना का आघात हुआ हो या फिर याचिकाकर्ता न्याय का खर्च उठाने में आर्थिक रुप से सक्षम न हो । उक्त शर्तों से न सिर्फ जनहित याचिका के  प्रस्तावित उद्देश्यों और वास्तविकता के अंतराल की खाई को पाटा जा सकेगा बल्कि समय-समय पर लगने वाले न्यायपालिका  पर ' अति - न्यायिक सक्रियता '  के आरोप को भी कम किया जा सकता है .
    
• विनोद राठी  [ बिजेनस स्टैंडर्ड - 23 April 2018 ]  
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