स्वायत्ता का यह सिलसिला चुनाव आयोग और सीबीआई जैसी सैंविधानिक संस्थाओं या भारतीय रिजर्व बैंक जैसे नियामकों और अलग राज्यों की मांग तक सीमित नहीं है बल्कि अब यह सिलसिला शिक्षण संस्थानों तक पहुंच चुका है । गौरतलब है कि अभी हाल ही में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय 62 उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता देने का निर्णय लिया है । इनमें प्रमुख शिक्षण संस्थानों को शामिल किया गया है । मसलन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बीएचयू, एएमयू इत्यादि । इस निर्णय के अनुसार 5 केंद्रीय विश्वविद्यालयों , 21 राज्य विश्वविद्यालय 24 डीम्ड विश्वविद्यालय तथा दो निजी विश्वविद्यालय को अपने फैसले लेने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा ।
सरकार के इस तर्क में संदेह नहीं किया जा सकता कि इस फैसले से संस्थाओं की शैक्षिक गुणवत्ता का स्तर बढ़ेगा । विश्वस्तरीय पाठ्यक्रम और विश्वस्तरीय शिक्षक वाले पठन-पाठन के माहौल में शिक्षा के उत्पादन में गुणवत्ता आना स्वाभाविक है । लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हम एक समाजवादी लोक- कल्याणकारी राष्ट्र के निवासी हैं और एक लोक कल्याणकारी राष्ट्र का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को शिक्षा स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाएं रियायती दरों पर उपलब्ध कराये । जब इन शिक्षण संस्थानों को सरकारी मदद कम या बंद हो जाएगी तो फीस का बढ़ना और गरीब तबके के आर्थिक सशक्तिकरण हेतु फेलोशिप , स्कॉलरशिप जैसी सामाजिक न्याय वाली योजनाएं का प्रभावित होना लाजमी है ।
यानी एक तरफ यह फैसला हमारे राष्ट्र के मूल चरित्र को ठेंगा दिखाता प्रतीत हो रहा है तो दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती ' रोजगार विहीन शिक्षा ' की समस्या को दूर करने की ज्यादा उम्मीद नहीं बांधता दिखाई दे रहा । इसे देश की विडंबना नहीं तो और क्या है कहा जाए कि एक तरफ तो हम विश्व के सबसे युवा देश होने का गर्व महसूस करते हैं तो दूसरी ओर श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के आंकड़े इसके विपरीत तस्वीर प्रस्तुत करते दिखाई दे रहे हैं । आंकड़ों के मुताबिक देश की 65 फीसद आबादी नियमित रोजगार के अभाव से जूझ रही है | इससे भी चिंताजनक स्थिति तो यह है कि 60 फीसद ग्रेजुएट पोस्ट ग्रेजुएट कर चुके शिक्षित युवा शामिल है !
दरअसल अगर हम वास्तव में उच्च शिक्षा में सुधार चाहते हैं तो इसकी पहली शर्त है कि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था जिन चुनौतियों से दो-चार हो रही है उन्हें पहचाने । चाहे वह चुनौती छात्र शिक्षक अनुपात के रूप में हो या कार्य संस्कृति के रूप में । इन सब पर संजीदगी से विचार करने की आवश्यकता है । जेएनयू जैसी संस्थाओं में जिस तरह कि स्तरहीन राजनीति देश को विचलित करती है , वह कम चिंता की बात नहीं है । छात्र शिक्षक अनुपात के बारे में बात करें तो अनेक शिक्षण संस्थाओं में 300 छात्रों पर एक प्राध्यापक वाला अनुपात विद्यमान है । जो किसी को भी अचरज में डाल सकता है । हमारे शिक्षण संस्थानों की प्रयोगशाला की जो स्थिति को उसे भी उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता ।ये न सिर्फ संसाधनों के अभाव से जूझ रही हैं बल्कि छात्रों को सत्र के अंत में उच्चतम अंक देने की मानसिकता भी बराबर विद्यमान है । ऐसी स्थिति में हमें शिक्षण संस्थानों के प्रशासन व प्राध्यापकों से नैतिकता की अपेक्षा है । साथ ही छात्रों को भी वर्तमान के टेक्नोलॉजी युग में शोध के महत्व को उजागर कर प्रेरित करना वर्तमान समय की निहायती जरूरत है ।
इन सब पहलुओं के बावजूद इसके उज्जवल पक्ष को नकारे तो यह बेमानी ही होगी | स्वायत्तता का यह फैसला न सिर्फ देश की नौकरशाही के कार्यों बोझ को कम करने वाला साबित होने वाला है बल्कि अनेक विश्वसनीय संस्थान जो भारत के शोध में निवेश करना चाहते हैं उनके लिए ये रास्ता आसान कर देगा । वर्तमान में देश में एक ' ब्रेन ड्रेन ' की परिपाटी सी बन चुकी है । यहां ' ब्रेन ड्रेन ' का अर्थ होनहार भारतीय छात्रों का विदेशों में बढ़ते आकर्षण से है । इस फैसले से न सिर्फ इस स्थिति में सुधार की संभावना है बल्कि , चुंकि देश में विदेशी संस्थाओं का आगमन होगा तो देश में ' रिवर्स ब्रेन ड्रेन ' की शुरुआत होगी जो भारत को नवाचार और शोध का केंद्र बनाने में मील का पत्थर साबित हो सकता है ।
कुल मिलाकर विश्वस्तरीय शिक्षकों से पढ़ने का अवसर प्रदान करने वाला स्वायत्तता का यह कदम सराहनीय है बशर्ते हमारी हुकूमत द्वारा साफ मंशा से लिया गया फैसला निरकुंश स्वायत्तता की बजाय मात्र स्वायत्तता तक सीमित रहें । संस्थाएं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की आड़ में शिक्षा का व्यापार न करने लग जाएं इसके लिए अति आवश्यक है कि संबंधित शिक्षण संस्थानों की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए । यह जवाबदेही न सिर्फ सरकार के प्रति बल्कि जनता के प्रति भी होनी चाहिए । इसके अतिरिक्त निश्चित समय अंतराल के बाद निष्पक्षता पूर्वक ऑडिटिंग की व्यवस्था भी बहुत जरूरी है ताकि संविधान निर्माताओं के लोक कल्याणकारी राज्य वाले सपने को कोई आंच ना आ सके ।
लेखक - विनोद राठी
अमर उजाला - 5.04.2018 में प्रकाशित
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In English
These days the air of autonomy in the country is fast moving forward. Whether it is the winding up of Nirvai Modi's bank scam, in the form of raising the rights of the Reserve Bank or the Government of the closed cage parrot, it is a matter of liberating the CBI from the interference of the ruling party. The date of Karnataka election is the numbing event being leaked prior to the announcement of the commission or demand of a separate state. Though the appearance of the event may be different, but behind them all, somewhere, the original feeling is hidden from autonomy.
This series of autonomy is not limited to the demands of regulators like the Reserve Bank of India and the Reserve Bank of India, such as the Election Commission and the CBI, but now it has reached the educational institutions. Significantly, the Union Human Resource Development Ministry has recently decided to give autonomy to 62 higher educational institutions. These include major educational institutions. For example, Jawaharlal Nehru University, BHU, AMU etc. According to this decision, 5 Central Universities, 21 State Universities, 24 Deemed Universities and two Private Universities will not have to depend on the University Grants Commission for taking their decisions.
The argument of the government can not be doubted that this decision will increase the quality of educational quality of the institutions. It is natural to have quality in education production in world-class curriculum and a world-class reading-reading environment. But we should also not forget that we are a socialist people - a resident of the welfare nation and the responsibility of a public welfare state is to provide the basic facilities such as education health to the citizens on concessional rates. When government education is reduced or stopped for these educational institutions, social justice schemes such as fellowships and scholarships for the economic empowerment of the poorest sections are bound to be affected.
That is, on one hand this decision seems to be chasing the original character of our nation. Unfortunately, the biggest challenge of our education system is not to binge more hope to overcome the problem of 'jobless education'. It is not irony of the country if it is said that on one side we are proud to be the youngest country in the world, on the other hand the Ministry of Labor and Employment is presenting the picture on the contrary. According to statistics, 65 percent of the country's population is struggling with regular employment. Worse still, the 60 percent graduate post graduate educated youth is involved!
Actually if we really want to improve higher education, then the first condition is that our higher education system recognizes the challenges that are happening. Whether the challenge is in the form of student teacher ratios or as a work culture. All of these need to be thought seriously. In institutions like JNU, that the levelless politics distracts the country, it is not a matter of less concern. Talk about the student teacher ratio, there is a professor ratio of 300 students in many educational institutions. Who can surprise anyone. The condition of the laboratory of our educational institutions can not be called as encouraging. They are not only struggling with the lack of resources, but the mindset of giving students the highest marks at the end of the session is also equally present. In such a situation, we expect the administration of educational institutions and ethics from the professors. Simultaneously, students are also in the urgent need of the present time to highlight the importance of research in the present age of technology.
In spite of all these aspects, it will be redundant if it refuses its bright side. This autonomy decision is not only going to prove to be a burden to the burden of the work of the country's bureaucracy but it will make it easier for many reliable institutions who want to invest in India's research. Currently, a 'brain drain' system has become a practice. Here 'brain drain' means the promising Indian students from abroad increasingly. This decision is not only a possibility of improvement in this situation but, as foreign entities arrive in the country, there will be a beginning of 'reverse brain drain' in the country which can prove to be a milestone in making India a center of innovation and research. .
This step of autonomy, giving the opportunity to read from world-class educators overall, is commendable, provided the decision taken with clear intention from our government is limited to mere autonomy rather than absolute autonomy. It is necessary for the institutions to ensure the accountability of the respective educational institutions. This accountability should not only be with the government but also against the people. Apart from this, arrangement of audit of fairly fair after certain time intervals is also necessary so that the dream of the Constitution makers can not make any difference to the dream of the public welfare state
By - Vinod Rathee
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